वैसे यह पहली बार नहीं है की आपदा में लोगों ने सुअवसर मानवता की सेवा के रूप में देखा और लोगों की अपेक्षा से ज्यादा सहायता की चाहे वह भुज का भूकंप हो या केदारनाथ ग्लेशियर की तबाही। भुज के भूकंप व केदारनाथ त्रासदी के दौरान लोगों ने पीड़ितों की मदद भोजन व आवास देकर किया साथ में कुछ संस्थाओं ने पीड़ितों को उनके घर तक पहुंचाया । ऐसी मानसिकता जो सही मायने में मानवता को परिभाषित करती है का उत्कृष्ट प्रदर्शन किया, पर इन दोनों घटनाओं में कुछ लोगों ने कुछ ऐसे कारनामें किये, जो उनकी विक्षिप्त मानसिकता को परिलक्षित कर गयी, लोगों ने पीड़ितों को भुज व केदारनाथ त्रासदी में लूटा, मृत शरीरों से उनके पहने हुए स्वर्ण आभूषणों को अपनी गिद्ध मानसिकता के कारण नोच कर बलात् अपना बना लिया। मुझे याद आती है, एक घटना जिसमें भुज भूकंप के दौरान किसी मकान से एक महिला का मृत शरीर निकाला जा रहा था और पुलिस वालों ने उक्त महिला द्वारा पहने हुए गहनो को निकालकर उस परिवार के एकमात्र बचे हुए वृद्ध पुरुष को देने चाहे, परंतु वह लेने से बार-बार मना करता रहा । जब इसका कारण पूछा गया तब उस वृद्ध ने जवाब दिया यह गहने मैंने भी किसी डैम की त्रासदी के दौरान मृत शरीरों से ही छीने थे, जिन्होंने मुझे भी आज उसी अवस्था में पहुंचा दिया,कृपा करके यह मुझे मत दीजिए। ऐसी मात्र यह पहली घटना नहीं होगी, जिसमें लोगों ने अपने द्वारा किए गए को कुकर्मों का पश्चाताप किया,जो बाद में समाज को एक राह दिखाते हैं।
कुछ ऐसा ही वर्तमान में कोरोना त्रासदी के समय में भी दृष्टिगोचर हो रहा है जहां कोई मुंबई का व्यक्ति अपनी बड़ी कार का विक्रय कर देता है लोगों को महज ऑक्सीजन उपलब्ध कराने के लिए, तो कहीं सोनू सूद जैसा व्यक्ति लोगों को उनके प्रदेश में भेजने का बीड़ा उठाता है,तो कहीं बनारस में रोटी मैन बनकर लोगों का पेट भरता है, तो दक्षिण में कोई राइसमैन (चावल वितरण सेवा) उभरता है, यही नहीं देश के कई रेलवे स्टेशनों पर निशुल्क खाने पीने की व्यवस्था भी देखने को मिलती है। लेकिन उपरोक्त दैवीय मानसिकता के अतिरिक्त कुछेक लोग अस्पतालों में सामान्य सैय्याओं के शुल्क सामान्य से 10 गुना बढ़ा देते हैं, जो बेड ₹300 प्रतिदिन के शुल्क पर उपलब्ध होते थे उनको आज 3000 से ₹5000 तक पर आवंटन, और ऑक्सीजन व वेंटीलेटर सम्पन्न शायिकाओं/बेड के शुल्कों में अनापेक्षित वृद्धि से अपने कमाने का अवसर समझकर, अपनी कुलषित मानसिकता का परिचय दे रहें हैं। यहां एक पक्ष अपनों पर आए संकट के लिए अपना सबकुछ निछावर कर देने पर आमादा हैं, तो वहीं कुछ लोग उसी विक्षिप्त मानसिकता से अपनों के लिए कल्पनातीत सपने बुन रहें, पर क्या वह कल्पना से बुने हुए सपने कभी वास्तविक धरातल पर सुख दे पाएंगे ? यह एक यक्ष प्रश्न होगा, जिसका जवाब समय जरूर देगा हां, उसमें विलंब हो सकता है, क्योंकि कभी लूट की संपत्ति पर बनामहल सुख नहीं दे सकता, ऐसा इतिहास अतीत से उजागर करता चला आ रहा है l यह विक्षिप्त मानसिकता केवल यही नहीं दृष्टिगोचर होती है, बल्कि अनावश्यक रूप से लोगों द्वारा ऑक्सीजन व अन्य दवाइयों का संग्रहण, जो शायद उनकी आवश्यकता से भी परे है, और मौजूदा समय में किसी अन्य को इसकी सख्त जरूरत है पर उस तक अब पहुंच नहीं सकती या कई भंडारण और वितरकों द्वारा उनके दामों में दस गुना वृद्धि करके कालाबाजारी पर आमादा हैं।
इसके अतिरिक्त प्रतिदिन जरूरतों में आने वाली वस्तुएं जैसे सब्जियां,नींबू, संतरे फल आदि आजकल की कीमतों में दो से कई गुना वृद्धि भी देखने को मिल रही है, जो कुछ राक्षसी प्रवृत्तियों वी मानसिकता का परिचायक बन गई हैं। क्या इस समय की की गई लूट हमारे जीवन में कोई बहुत बड़ा परिवर्तन ला सकती है, मेरी नजरों में तो बिल्कुल भी नहीं, क्योंकि ये लूट के पैसे चंददिनो की बाह्य खुशी दे सकते हैं, जो आत्मा पर महज एक आवरण चढ़ाकर ही महसूस कर सकते हैं।
उक्त विक्षिप्त मानसिकता व सहृदय मानसिकता के बीच का द्वंद सदियों से चला रहा है, पर जिन्होंने इतिहास से सबक नहीं लिया उनका आजका लूट का सुअवसर निश्चित रूप से कल का कुअवसर बनेगा ।
क्योकि श्रीमद भगवद्गीता में कहां गया है कर्मण्ए वाधिकारस्ते मां फलेषु कदाचन अर्थात किए गए कर्म का अधिकार तो हमारे अधिकार क्षेत्र में है पर फल नहीं, हां पर मिलेगा जरूर भले ही आज नहीं तो कल या इस जन्म में नहीं तो फिर अगले जन्म में.. कर्मफल को हम यदि एक मील का पत्थर माने तो समयचक्र कभी न कभी उक्त स्थान पर हमे पहुंचायेगा जरूर और गंतव्य पर पहुंचकर उन कर्मफलों को हमको चखना भी पड़ेगा, अब सोचना है तो वो कर्मफल मीठे सुखद भी हो सकते है, और कड़वे तीखे दुखद, जिनके परिणाम हमारे द्वारा खुद ही अतीत में संचित किए जा चुके हैं ।